बहुत कुछ मेहनतों से इक ज़रा इज़्ज़त कमाई है अंधेरे झोंपड़े में रौशनी जुगनू से आई है तसद्दुक़ ज़िंदगी फ़ाक़ों पे उस के अहद-ए-हाज़िर में कि जिस ने जान दे कर आबरू अपनी बचाई है हमें इंकार है बातिल-परस्तों की क़यादत से हमारी ज़िंदगी की हर तमन्ना कर बुलाई है ख़ुद अपने शहर में अपना शनासाई नहीं कोई न जाने जुस्तुजू अपनी ये किस मंज़िल पे लाई है अजब दस्तूर है 'साहिल' कि इस अहद-ए-तरक़्क़ी में भलाई में बुराई और बुराई में भलाई है