बहुत मलाल था लहजे में सोगवारी थी ज़मीन-ए-दिल पे मोहब्बत की हम्द जारी थी बदल गया था मआ'नी वो रंजिशों के सभी बला का ज़ब्त था उस में और इंकिसारी थी ख़ुदा-ए-आली-ओ-बरतर से माँग रक्खी थी वो हाजतें कि ज़माने से राज़दारी थी तमाम रात पहन कर लिबास-ए-ग़म मैं ने तमाम रात तिरे हिज्र में गुज़ारी थी जदीद दौर के अपने कई तक़ाज़े हैं गए दिनों में तो जज़्बों की पासदारी थी