बहुत रोने से दिल का बोझ हल्का हो गया आख़िर जो यादों के झरोकों को भी शायद धो गया आख़िर न मातम है न सन्नाटा अजब सरगोशियाँ सी हैं मिरी चौखट पे सर रख कर वो लड़का सो गया आख़िर मैं ख़ुद अश्कों के दरियाओं की पहनाई का हासिल था मगर वो एक क़तरा बार-ए-हस्ती धो गया आख़िर मुझे भीगी हुई आँखों में रहने का सलीक़ा है मैं गीले काग़ज़ों में लफ़्ज़ सारे बो गया आख़िर वो रस्ता जो तिरी तुर्बत से हो कर मुझ तलक आया वो रस्ता वक़्त की पहनाइयों में खो गया आख़िर 'मतीन' इक़बाल आँखें पोंछ लो तकिया छुपा रक्खो वो देखो अपने आँगन में सवेरा हो गया आख़िर