बहुत तल्ख़ हैं ज़िंदगी के फ़साने मिरे ख़्वाब हैं फिर भी कितने सुहाने सहारा न देती अगर मौज-ए-तूफ़ाँ डुबो ही दिया था हमें ना-ख़ुदा ने सहर को तो आना है आ कर रहेगी कटे कैसे लेकिन ये शब कौन जाने गिरी और गिरती रही बर्क़-ए-सोज़ाँ बने और बनते रहे आशियाने सितारों से आगे बहुत कुछ है माना ज़मीं पर भी जीने के हों कुछ बहाने 'कलीम' आज क्या सोच कर हो गए चुप अरे आ गए याद कब के ज़माने