बैठा हूँ अपनी ज़ात का नक़्शा निकाल के इक बे-ज़मीन हारी हूँ सहरा निकाल के ढूँडा बहुत मगर कोई रस्ता नहीं मिला इस ज़िंदगी से तेरा हवाला निकाल के अलमारी से मिले मुझे पहले पहल के ख़त बैठा हुआ हूँ आप का वा'दा निकाल के वीरानियों पे आँख छमा-छम बरस पड़ी लाया हूँ मैं तो दश्त से दरिया निकाल के आसानियाँ ही सोचते रहते हैं यार लोग उक़्बा निकाल कर कभी दुनिया निकाल के हम रफ़्तगाँ से हट के भी देखें तो शे'र में मौज़ूअ' कम ही बचते हैं नौहा निकाल के मिलना कहाँ था सहल दर-ए-आगही मुझे आया हूँ मैं पहाड़ से रस्ता निकाल के वाइ'ज़ निहाल आज ख़ुशी से है किस क़दर इक ताज़ा इख़्तिलाफ़ का नुक्ता निकाल के मुनइ'म को उस निवाले की लज़्ज़त का क्या पता मज़दूर जो कमाए पसीना निकाल के हालात क्या ग़रीब के बदले कि हर कोई ले आया है क़रीब का रिश्ता निकाल के 'जाज़िब' कहाँ ख़बर थी कि है बाज़ ताक में हम शाद थे क़फ़स से परिंदा निकाल के