बैठा हूँ वक़्फ़-ए-मातम-ए-हस्ती मिटा हुआ ज़हर-ए-वफ़ा है घर की फ़ज़ा में घुला हुआ ख़ुद उस के पास जाऊँ न उस को बुलाऊँ पास पाया है वो मिज़ाज कि जीना बला हुआ उस पर ग़लत है इश्क़ में इल्ज़ाम-ए-दुश्मनी क़ातिल है मेरे हजला-ए-जाँ में छुपा हुआ हैं जिस्म-ओ-जाँ बहम ये मगर किस को है ख़बर किस किस जगह से दामन-ए-दिल है सिला हुआ है राहवार-ए-शौक़ पे आसेब-ए-बे-दिली रक्खा है कब से सामने साग़र भरा हुआ हासिल है जिस को 'अर्श' फ़ज़ाओं में इख़्तियार वो दिल के साथ खेल रहा है तो क्या हुआ