बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर ठहरा हुआ हूँ वक़्त की रफ़्तार देख कर हम-मशरबी की शर्म गवारा न हो सकी ख़ुद छोड़ दी है शैख़ को मय-ख़्वार देख कर क्या जाने बहर-ए-इश्क़ में कितने हुए हैं ग़र्क़ साहिल से सत्ह-ए-आब को हमवार देख कर हैं आज तक निगाह में हालाँकि आज तक देखा न फिर कभी उन्हें इक बार देख कर 'बिस्मिल' तुम आज रोते हो अंजाम-ए-इश्क़ को हम कल समझ गए थे कुछ आसार देख कर