बैठे हो सर-ए-राहगुज़र क्यों नहीं जाते तुम लोग तो घर वाले हो घर क्यों नहीं जाते ये वक़्त के हाकिम हैं सुना वक़्त के हाकिम ये कहते हैं मर जाओ तो मर क्यों नहीं जाते इस बात से ज़ाहिर है तुम्हीं एक ख़ुदा हो हम वर्ना किसी और के दर क्यों नहीं जाते पल ही में गुज़र जाती है सुख-चैन की रातें दुख-दर्द के दिन पल में गुज़र क्यों नहीं जाते मुद्दत से कुरेदे भी नहीं याद किसी की फिर ज़ख़्म मिरे सीने के भर क्यों नहीं जाते इस दौर में जीना है तो मक्कार का जीना ये बात हक़ीक़त है तो मर क्यों नहीं जाते इतने ही अगर तंग हो इस शहर से 'आसी' चुपके से किसी दूर नगर क्यों नहीं जाते