बैठे हुए हैं हम ख़ुद आँखों में धूल डाले ऐ रू-ए-यार तू ने पर्दे फ़ुज़ूल डाले झगड़ा ही तुम चुका दो जब तेग़ खींच ली है आफ़त में फिर न मुझ को जान-ए-मलूल डाले सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है दैर-ओ-हरम की बाबत झगड़े फ़ुज़ूल डाले तुर्बत से कोई पूछे नैरंगी-ए-ज़माना बा'ज़ों ने ख़ाक डाली बा۔ज़ों ने फूल डाले कहते हैं जिस को जल्वा वो भी कहीं रुका है आड़ें फ़ुज़ूल की हैं पर्दे फ़ुज़ूल डाले सदक़े दिल-ओ-जिगर को मिज़्गाँ पे कर चुका हूँ मैं ने तो अपने हाथों काँटों पे फूल डाले कैसे हिसाब जोड़ूँ आ'माल-ए-मा'सियत का जब उस की शान-ए-रहमत गिनती में भूल डाले 'मुज़्तर' दिलों के अंदर रखने के थे ये काफ़िर दोज़ख़ में क्यूँ ख़ुदा ने जन्नत के फूल डाले