बाज़ औक़ात मुझ को लगता है ज़िंदगी बस नज़र का धोका है पेड़ पौदे गिरा दिए जिस ने उस हवा में चराग़ रक्खा है देख दरिया इसी को कहते हैं जो किनारों में रह के बहता है इक मुसव्विर को जानता हूँ मैं दश्त में जो शजर बनाता है उस की ता'बीर का बनेगा क्या मैं ने जो ख़्वाब ख़ुद तराशा है रौशनी के क़रीब जितना हूँ क़द में उतना ही मेरा साया है कुछ नज़ारे ज़रूरी होते हैं वर्ना आँखों में दर्द रहता है हम को मिलने वो आएँगे 'आरिज़' हाँ मगर ये ख़याल अच्छा है