बाज़ार-ए-मोहब्बत में शर्मिंदा शराफ़त है फूलों की नुमाइश है ख़ुशबू की तिजारत है हँसते हुए गुलशन को पल भर में रुला डाले आवारा हवाओं में ऐसी भी महारत है ता'मीर का जज़्बा भी तख़रीब का नक़्शा भी ये शौक़-ए-शहादत है या ज़ौक़-ए-बग़ावत है बुझते हुए अंगारे पैग़ाम ये देते हैं शो'लों से उलझने की शबनम में जसारत है औक़ात की हद से वो आगे नहीं बढ़ सकता क़िस्मत की हथेली पर रौशन ये इबारत है अशआर 'असर' मेरे मंसूब उसी से हैं जिस फ़िक्र-ए-रसा की भी अंगड़ाई क़यामत है