बक़ा के साथ अना का सवाल आता है किसी उरूज पे जब भी ज़वाल आता है जो टूटता है कभी शाख़ से कोई पत्ता किसी के अह्द-ए-वफ़ा का ख़याल आता है सिपह-गरी तो बुज़ुर्गों के साथ दफ़्न हुई हमें तो आज फ़न-ए-क़ील-ओ-क़ाल आता है जो मुँह चिढ़ाते हैं आसार अहद-ए-माज़ी के हमारे ख़ून में अक्सर उबाल आता है न जाने क्यों वही औलाद से परेशाँ हैं घरों में जिन के हराम-ओ-हलाल आता है मिरे ख़याल में आ कर चटख़ गया वो बदन सुना था मैं ने कि शीशे में बाल आता है उसे पता है कि दरिया का ज़र्फ़ कितना है वो सारी नेकियाँ साहिल पे डाल आता है