बला जाने किसी की हिज्र में इस दिल पे क्या गुज़री करे सय्याद क्यूँ पर्वा किसी बिस्मिल पे क्या गुज़री निसार-ए-शमअ' हो जाना तो परवाने की फ़ितरत है न पूछो ख़ाक होने से मिरे महफ़िल पे क्या गुज़री शबिस्तान-ए-मुसर्रत में जो महव-ए-ऐश-ओ-इशरत हैं उन्हें इस का पता क्या रहरव-ए-मंज़िल पे क्या गुज़री जुनून-ए-क़ैस पर हँसते तो हैं अक़्ल-ओ-ख़िरद वाले किसे मा'लूम है ख़ुद लैली-ए-महमिल पे क्या गुज़री उसे ऐ काश ये मा'लूम हो जाए किसी सूरत कि उस की बे-रुख़ी से 'क़ादरी' के दिल पे क्या गुज़री