बला से अपनी अब आती रहे बहार कभी कली प सूखी न आएगा फिर निखार कभी हज़ार बर्क़ गिरे लाख आशियाने जलें रुके न गुलशन-ए-हस्ती का कारोबार कभी हर इक निगाह निहारे नए शगूफ़ों को सुने न कोई गुल-ए-ज़र्द की पुकार कभी बचेगा आँख से गुलचीं की कब तलक आख़िर नहीं है फूल की हस्ती का ए'तिबार कभी निज़ाम-ए-बाग़ अब ऐ बाग़बाँ बदल कुछ तो कली को फूल को दे कुछ तो इख़्तियार कभी समझ के सूखा हुआ फूल जिस को फेंक दिया था वो 'सदा' भी किसी के गले का हार कभी