बलाएँ आँखों से उन की मुदाम लेते हैं हम अपने हाथों का मिज़्गाँ से काम लेते हैं हम उन की ज़ुल्फ़ से सौदा जो वाम लेते हैं तो अस्ल ओ सूद वो सब दाम दाम लेते हैं शब-ए-विसाल के रोज़-ए-फ़िराक़ में क्या क्या नसीब मुझ से मिरे इंतिक़ाम लेते हैं क़मर ही दाग़-ए-ग़ुलामी फ़क़त नहीं रखता वो मोल ऐसे हज़ारों ग़ुलाम लेते हैं हम उन के ज़ोर के क़ाइल हैं हैं वही शह-ज़ोर जो इश्क़ में दिल-ए-मुज़्तर को थाम लेते हैं क़तील-ए-नाज़ बताते नहीं तुझे क़ातिल जब उन से पूछो अजल ही का नाम लेते हैं तिरे असीर जो सय्याद करते हैं फ़रियाद तो फिर वो दम ही नहीं ज़ेर-ए-दाम लेते हैं झुकाए है सर-ए-तस्लीम माह-ए-नौ पर वो ग़ुरूर-ए-हुस्न से किस का सलाम लेते हैं तिरे ख़िराम के पैरू हैं जितने फ़ित्ने हैं क़दम सब आन के वक़्त-ए-ख़िराम लेते हैं हमारे हाथ से ऐ 'ज़ौक़' वक़्त-ए-मय-नोशी हज़ार नाज़ से वो एक जाम लेते हैं