बन गया है जिस्म गुज़रे क़ाफ़िलों की गर्द सा कितना वीराँ कर गया मुझ को मिरा हमदर्द सा क्या अभी तक उस का रस्ता रोकती है कोई सोच मेरे हाथों में है उस का हाथ लेकिन सर्द सा इस तरह घुल-मिल गया आ कर नए माहौल में वो भी अब लगता है मेरे घर का ही इक फ़र्द सा जज़्ब था जैसे कोई सूरज ही उस के जिस्म में दूर से वो संग लगता था ब-ज़ाहिर सर्द सा आज तक आँखों में है मंज़र बिछड़ने का 'नसीम' पैरहन मेला सा उस का और चेहरा ज़र्द सा