बन से फ़सील-ए-शहर तक कोई सवार भी नहीं किस को बिठाएँ तख़्त पर गर्द-ओ-ग़ुबार भी नहीं बर्ग-ओ-गुल-ओ-तुयूर सब शाख़ों की सम्त उड़ गए क़सर-ऐ-जहाँ-पनाह में नक़्श-ओ-निगार भी नहीं सायों की ज़द में आ गईं सारी ग़ुलाम-गर्दिशें अब तो कनीज़ के लिए राह-ए-फ़रार भी नहीं मैले लिबास की दुआ पहुँचे शबीह-ए-शाख़ तक शाहों के पाएँ बाग़ में ऐसा मज़ार भी नहीं कल हमा-तन जमाल थे आइने हस्ब-ए-हाल थे सुनते हैं अब वो ख़ाल-ओ-ख़द अक्स के पार भी नहीं