बना कर ख़ुद को जिस ने इक भला इंसान रक्खा है सुकून-ए-क़ल्ब का अपने लिए सामान रक्खा है सुकूँ के साथ जीना तो बहुत दुश्वार है लेकिन ज़माना ने पहुँचना मर्ग तक आसान रक्खा है न क्यूँ मोहतात रख्खूँ ख़ुद को वक़्त-ए-गुफ़्तुगू तुम से तुम्हारे दिल को मैं ने आबगीना जान रक्खा है परी क्यूँ नींद की उतरे मिरी पलकों के आँगन में कि मैं ने पाल कर दिल में अजब बोहरान रक्खा है दर-ओ-दीवार पर हैं घोंसले कितने परिंदों के कहूँ कैसे कि क़ुदरत ने ये घर वीरान रक्खा है अता कर सामना करने की जुरअत ऐ ख़ुदा दिल में मिरी कश्ती की क़िस्मत में अगर तूफ़ान रक्खा है मिरे ऊपर 'वली' सब से बड़ा एहसान है उस का कि जिस ने शाख़-ए-दिल पर फूल सा ईमान रखा है