बना के इक नई मंज़िल गुज़र गए होते जिधर कोई नहीं जाता उधर गए होते पए सुकूँ न अगर हम ठहर गए होते तो आज ता-हद-ए-शम्स-ओ-क़मर गए होते ग़म-ए-हयात से हम भी जो डर गए होते तो क़ैद-ए-ज़ीस्त में रह के भी मर गए होते जो मय-कदे में ज़रा तुम ठहर गए होते नज़र के ज़ोर से पैमाने भर गए होते न लफ़्ज़ गुल को समझते न ख़ार के मा'नी बचा बचा के जो दामन गुज़र गए होते मैं बेवफ़ा हूँ तो वो क्यूँ नज़र चुरा के गए ज़रा मिला के नज़र से नज़र गए होते नसीम-ए-सुब्ह के झोंके मिरी तरफ़ क्यूँ आए जहाँ बहार है गुल हैं उधर गए होते बताता कौन नशेब-ओ-फ़राज़-ए-राह-ए-हयात जो सब की तरह से हम भी गुज़र गए होते बहाना चाहिए गुलशन में डरने वालों को न ख़ार होते तो फूलों से डर गए होते मैं और कुछ नहीं कहता मगर चमन वालो बहार आती तो गुलशन सँवर गए होते जो इत्तिहाद की मंज़िल पे होते हम 'शारिब' तग़य्युरात के चेहरे उतर गए होते