बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर मिरे मुँह से जो निकला ना-गहाँ ओ काफ़िर ओ काफ़िर मुसलमाँ देख कर उस बुत की सूरत को ये कहता है मुसलमानी कहाँ की? बाँध ले ज़ुन्नार, हो काफ़िर तुझे पर्वा नहीं हरगिज़ किसी की तू है बे-परवा तिरे इस हुस्न-ए-काफ़िर पर परी हो जाए गो काफ़िर शब-ए-हिज्राँ में जो दिल दम-ब-दम फ़रियाद करता है ख़फ़ा हो कर कहूँ मैं कोई साअत तू तो सो काफ़िर कहाँ तक ऐ दिल-ए-शोरीदा तू आँसू बहावेगा शब आई सुब्ह होने पर बस इतना भी न रो काफ़िर हम अपना दीन-ओ-ईमाँ पहले उस को नज़्र करते हैं हमारे सामने इस शक्ल से आता है जो काफ़िर तिरी बातों से तो ऐ 'मुसहफ़ी' जी अपना तंग आया ख़ुदा के वास्ते चुप रह न मेरी जान खो काफ़िर