बनाए सब ने इसी ख़ाक से दिए अपने फ़लक से टूट के शम्स-ओ-क़मर नहीं आए गली गली हो जहाँ जन्नतों का गहवारा हमारी राह में ऐसे नगर नहीं आए हर एक मोड़ से पूछा है मंज़िलों का पता सफ़र तमाम हुआ रहबर नहीं आए ग़मों के बोझ से टूटी है ज़िंदगी की कमर बदन पे ज़ख़्म कहें चारा-गर नहीं आए गुलों की आँच ने झुलसा दिया बहारों को चमन को लूटने बर्क़-ओ-शरर नहीं आए हुए हैं सीना-ए-शब में जो दफ़्न अफ़्साने लब-ए-सहर पे कभी भूल कर नहीं आए चमक उठे हैं थपेड़ों की चोट से क़तरे सदफ़ की गोद में 'अंजुम' गुहर नहीं आए