बंद रखता हूँ बस ये जान के मुँह कभी लगिए न बद-ज़बान के मुँह ताब किस को है तीर खाने की कौन आए चढ़ी कमान के मुँह मुझ को क्या क्या गुमाँ गुज़रता है पास लाते हैं जब वो कान के मुँह मस्त-ए-मय से उलझ न ऐ गर्दूं बुड्ढे आता है क्यूँ जवान के मुँह पहले वो झुक के बात करते थे अब चढ़ाते हैं सीना तान के मुँह छापे संदल के लग गए आख़िर दो-ज़बानी से मेहरबान के मुँह लाल हो कर मिरी तलब पे कहा पहले क़ाबिल बनाओ पान के मुँह आप का हुक्म सुन के लौट आया कैसे लगता मैं पासबान के मुँह आज 'फ़ारूक़' फ़ैसला हो जाए खोलता हूँ ये दिल में ठान के मुँह