बंदगी करते करते ख़ुदा हो गया आदमी को ख़ुदा जाने क्या हो गया वो सितमगर ख़ुदा-ए-वफ़ा हो गया तुझ को ऐ ग़ैरत-ए-इश्क़ क्या हो गया आ कि तारीख़-ए-दिल फिर मुरत्तब करें फ़िक्र-ए-माज़ी न कर जो हुआ हो गया ज़िंदगी ही मुझे छोड़ कर चुप नहीं ख़ुद भी हैरान हूँ मैं ये क्या हो गया हम बहारों की मिन्नत ही करते रहे रंग-ए-गुलशन हुआ था हवा हो गया चुपके चुपके मिरा ज़िक्र होता रहा रफ़्ता रफ़्ता हर इक आश्ना हो गया तुझ से तो क़ुर्ब है तेरे दर पर तो हैं हम ख़ुदा तक न पहुँचे तो क्या हो गया ज़ीस्त थोड़ी बहुत काम आने लगी कुछ न कुछ मौत का आसरा हो गया किस तजस्सुस में 'अंजुम' परेशान हो साथ कब था जो कोई जुदा हो गया