बंजर ज़मीं थी और मकाँ कोई भी न था मैं उस जगह बसा था जहाँ कोई भी न था वहशत बरस रही थी जहान-ए-ख़राब में दिल को लुभा सके वो समाँ कोई भी न था सब से जुदा हुआ था मैं जिस के यक़ीन पर हो जाएगा जुदा वो गुमाँ कोई भी न था तपती हुई ज़मीन पे बरसों चला हूँ मैं लेकिन मिरे क़दम का निशाँ कोई भी न था हद्द-ए-निगाह शो'ले उगलती रही ज़मीं हैरत की बात है कि धुआँ कोई भी न था राह-ए-वफ़ा में ख़र्च हुई 'शाद' ज़िंदगी पास-ए-मफ़ाद पास-ए-ज़ियाँ कोई भी न था