बाक़ी है अभी ज़ुल्फ़ में ख़म और ज़रा सा ऐ हुस्न करम और करम और ज़रा सा खे़मे न लगाओ कि बहुत पास है मंज़िल बढ़ते रहो दो-चार क़दम और ज़रा सा सहराओं से निकला था कभी चश्मा-ए-ज़मज़म आती है सदा आज भी थम और ज़रा सा इक उम्र सराबों को समझते रहे दरिया रहने दो हमारा ये भरम और ज़रा सा फिर चाँद ने बादल में छुपा रक्खा है चेहरा फिर हिज्र का बढ़ जाए न ग़म और ज़रा सा जागा है कोई दर्द तो हम जाग उठे हैं कुछ और सितम और सितम और ज़रा सा आईना-ए-दिल टूटने वाला है सर-ए-शाम किरचों में बिखर जाएँगे हम और ज़रा सा 'इक़बाल' हैं उमडे हुए बादल अभी दिल में ऐ चश्म ज़रा और हो नम और ज़रा सा