बराबर ख़्वाब से चेहरों की हिजरत देखते रहना गुज़र चुकने पे भी वो शाम-ए-रहलत देखते रहना धनक की बारिशें बरफ़ाब शहरों पर नहीं होतीं यहाँ फूलों का रस्ता उम्र भर मत देखते रहना किताबों की तहों में ढूँढना ना-दीदा अश्या का पलट कर फिर कोई ख़ाली इबारत देखते रहना हुजूम-ए-शहर के सन्नाटे में गुम-सुम वो टीला सा उसी को आते जाते बे-ज़रूरत देखते रहना जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है फ़रिश्तों जैसी बस मेरी इबादत देखते रहना 'मुसव्विर' कुछ न कहने का ये दुख भी सख़्त ज़ालिम है तलब कर लेगी लफ़्ज़ों की अदालत देखते रहना
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