बरगश्ता और वो बुत-ए-बे-पीर हो न जाए उल्टी कहीं दुआओं की तासीर हो न जाए दिल जल के ख़ाक हो तो फिर इक्सीर हो न जाए जाँ-सोज़ हों जो नाले तो तासीर हो न जाए किस सादगी से मुजरिमों ने सर झुका लिया महजूब क्यूँ वो मालिक-ए-तक़दीर हो न जाए दस्त-ए-दुआ' तक उठ न सके फ़र्त-ए-शर्म से यारब किसी से ऐसी भी तक़्सीर हो न जाए मस्तों की ठोकर और मिरा सर है साक़िया दुश्मन किसी का यूँ फ़लक-ए-पीर हो न जाए उठने ही को है बीच से पर्दा हिजाब का महफ़िल तमाम आलम-ए-तस्वीर हो न जाए ग़फ़लत न कीजियो कभी क़ातिल की याद में ऐ दिल कोई कमी तह-ए-शमशीर हो न जाए बैठा है लौ लगाए कोई तेग़-ए-नाज़ से क़ातिल किसी के काम में ताख़ीर हो न जाए जल्दी सुबू को तोड़ के साग़र बना ले अब साक़ी इस अम्र-ए-ख़ैर में ताख़ीर हो न जाए नालों ने ज़ोर बाँधा है फिर पिछली रात से ऐ चर्ख़ चलते चलते कोई तीर हो न जाए दिल से बहुत शिकायतें करते हो यार की देखो क़लम से कुछ कभी तहरीर हो न जाए सैर-ए-चमन से दिल न लगाओ चले चलो फ़स्ल-ए-बहार पाँव की ज़ंजीर हो न जाए अंजाम-कार पर नहीं कुछ इख़्तियार 'यास' तक़दीर से ख़जिल मिरी तदबीर हो न जाए