बारहा देती रही हम को दुहाई महफ़िल वो नहीं थे तो हमें रास न आई महफ़िल रौशनी हुस्न-ए-सुख़न कुछ नहीं भाया दिल को सिर्फ़ यादों के चराग़ों से सजाई महफ़िल था यक़ीं ख़ुद पे भरोसा था हुनर पे अपने चाह शोहरत की थी जो खींच के लाई महफ़िल तज़्किरा होता रहा वक़्त गुज़ारें कैसे रात जब बीत गई होश में आई महफ़िल रौनक़ें उस के लिए जिस ने ख़ुशी हो पाई डूब कर कर्ब में किस ने भला पाई महफ़िल सब के चेहरों पे ख़मोशी का था आलम तारी नज़्म सुनते ही बड़े वज्द में आई महफ़िल