बारहा यूरिश-ए-अफ़्कार ने सोने न दिया फ़िक्र आज़ाद है आज़ार ने सोने न दिया बंद थीं दाएरा-ए-ख़्वाब में आँखें अपनी फ़िक्र की गर्दिश-ए-पर्कार ने सोने न दिया थी तसव्वुर में निहाँ-ख़ाना-ए-दिल की तस्वीर रात-भर दीदा-ए-बेदार ने सोने न दिया मुझ से थे बर-सर-ए-पैकार मिरे ज़ेहन-ओ-ज़मीर मुझ को बेदारी-ए-किरदार ने सोने न दिया कोई मंज़र था कि था मंज़र-ए-रंगीं का फ़रेब क्या कहीं ख़्वाब-ए-पुर-असरार ने सोने न दिया मुझ पे इस तरह से रौशन थी हक़ीक़त अपनी उम्र-भर चश्म-ए-ख़बर-दार ने सोने न दिया मैं ने कुछ धूप में जलते हुए चेहरे देखे फिर मुझे साया-ए-दीवार ने सोने न दिया रात-भर बारिश-ए-इल्हाम रही है दिल पर सुब्ह तक अब्र-गुहर-बार ने सोने न दिया 'लैस' मौज़ू-ए-सुख़न फ़िक्र-ए-बशर थी हम थे और फिर गर्मी-ए-गुफ़्तार ने सोने न दिया