बरहम कभी क़ासिद से वो महबूब न होता गर नाम हमारा सर-ए-मक्तूब न होता ख़ूबान-ए-जहाँ की है तिरे हुस्न से ख़ूबी तू ख़ूब न होता तो कोई ख़ूब न होता इस्लाम से बरगश्ता न होते ब-ख़ुदा हम गर इश्क़-ए-बुताँ तब्अ के मर्ग़ूब न होता क्यूँ फेर वो देता मुझे ले कर मिरे बर से इतना जो दिल-ए-ज़ार ये मायूब न होता इस बुत को ख़ुदा लाया है हम पास वगर्ना जीने का हमारे कोई उस्लूब न होता दिल आज के दिन पास जो होता मिरे तो आह! आने से मैं उस शोख़ के महजूब न होता हैं लाज़िम-ओ-मलज़ूम बहम हुस्न ओ मोहब्बत हम होते न तालिब जो वो मतलूब न होता सर अपना रह-ए-इश्क़ में देता जो न 'जुरअत' तू मजमा-ए-उश्शाक़ का सरकूब न होता