बरहनगी का मुदावा कोई लिबास न था ख़ुद अपने ज़हर का तिरयाक़ मेरे पास न था सुलग रहा हूँ ख़ुद अपनी ही आग में कब से ये मश्ग़ला तो मिरे दर्द की असास न था तिरी नवाज़िश-ए-पैहम के नक़्श दिल में रहे मैं बे-ख़बर सही पर ऐसा ना-सिपास न था हर एक शेर था मेरा मिरे ख़याल का अक्स कोई किताब न थी कोई इक़्तिबास न था बिखर गए थे सो ख़ुद को समेट भी लेते कि इस यक़ीन में शामिल मिरा क़यास न था