बारिश के क़तरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो तुम हँसते चेहरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो तुम ने सिर्फ़ बिछड़ जाने का कर्ब सहा है पा कर खो देने के दुख से ना-वाक़िफ़ हो एक ही छत के नीचे रहते हैं हम लेकिन तुम मेरे लहजे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो साथ किसी के रह कर जो तन्हा कटता है तुम ऐसे लम्हे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो हाथों की चूड़ी की ज़बान समझ लेते हो फैले हुए गजरे के दुख से ना-वाक़िफ़ हो जो मंज़िल तक जा के और कहीं मुड़ जाए तुम ऐसे रस्ते के दुख से ना-वाक़िफ़ हो