बर्क़ के साए में कैफ़-ए-आशियाँ समझा था मैं हर मआल-ए-रंग-ओ-बू को गुल्सिताँ समझा था मैं हर नुमूद-ए-इश्क़ में सोज़-ए-निहाँ समझा था में शाहकार-ए-हुस्न को आतश-बजाँ समझा था मैं रंज-ओ-ग़म से इर्तिबात-ए-जिस्म-ओ-जाँ समझा था मैं हस्ती-ए-नाकाम को ख़्वाब-ए-गिराँ समझता था मैं इश्क़-ए-फ़ानी को निशात-ए-जावेदाँ समझा था मैं ज़िंदगी के राज़ को अब तक कहाँ समझा था मैं दिल के हर पर्दे से आती थीं सदाएँ दर्द की बरबत-ए-हस्ती पे तुम को नग़्मा-ख़्वाँ समझा था मैं क्या ख़बर थी दिल ही मेरा आस्ताँ नाज़ है दिल को अब तक नियाज़-ए-आस्ताँ समझा था मैं इस लिए मैं इल्तिफ़ात-ए-ख़ास से महरूम हूँ जोशश-ए-सई-ए-तलब को राएगाँ समझा था मैं ऐ जुनून-ए-जुस्तुजू राह-ए-तलब में बार बार हर ग़ुबार-ए-कारवाँ को कारवाँ समझा था मैं सुन रहा था कैफ़ियात-ए-ज़िंदगी के वाक़िआ'त उन के अफ़्साने को अपनी दास्ताँ समझा था मैं बे-नियाज़-ए-बंदगी-ए-शौक़ थी मेरी ख़ुदी बे-ख़ुदी में एहतिराम-ए-आस्ताँ समझा था मैं इस क़दर डूबा हुआ था ए'तिबार-ए-शौक़ में हर फ़रेब-ए-आशियाँ को आशियाँ समझा था मैं ग़ुंचा-ओ-गुल ही पे क्या मौक़ूफ़ था राज़-ए-जमाल ज़र्रे ज़र्रे को चमन के राज़-दाँ समझा था मैं दिल की हर तफ़्सीर पर ख़ामोशियाँ देती थीं दाद अंजुमन वालों को महव-ए-दास्ताँ समझा था मैं आप की ज़ात-ए-गिरामी का न इरफ़ाँ कर सका आप को लेकिन शरीक-ए-कारवाँ समझा था मैं जब शिकस्त-ए-साज़-ए-दिल की 'ज़ेब' झंकारें सुनीं दिल की हर धड़कन पे तुम को नग़्मा-ख़्वाँ समझा था मैं