बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे सूरज निकल रहा था कि नींद आ गई मुझे रक्खी न ज़िंदगी ने मिरी मुफ़लिसी की शर्म चादर बना के राह में फैला गई मुझे मैं बिक गया था बाद में बे-सर्फ़ा जान कर दुनिया मिरी दुकान पे लौटा गई मुझे दरिया पे एक तंज़ समझिए कि तिश्नगी साहिल की सर्द रेत में दफ़ना गई मुझे ऐ ज़िंदगी तमाम लहू राएगाँ हुआ किस दश्त-ए-बे-सवाद में बरसा गई मुझे काग़ज़ का चाँद रख दिया दुनिया ने हाथ में पहले सफ़र की रात ही रास आ गई मुझे क्या चीज़ थी किसी की अदा-ए-सुपुर्दगी भीगे बदन की आग में नहला गई मुझे 'क़ैसर' क़लम की आग का एहसानमंद हूँ जब उँगलियाँ जलीं तो ग़ज़ल आ गई मुझे