बरसों कोई हमारे लिए जिस्म-ओ-जाँ रहा लेकिन वो अब फ़रेब का आलम कहाँ रहा ऐसे भी रास्तों से गुज़रना पड़ा कि बस वो बद-गुमाँ रहे कभी मैं बद-गुमाँ रहा हालात ने मिटा दिए माज़ी के सब नुक़ूश इक नाम था जो मिट के भी विर्द-ए-ज़बाँ रहा धुँदले से कुछ निशाँ हैं घटाओं के ध्यान में अब वो रहे न दूर न पीर-ए-मुग़ाँ रहा 'आसी' दिया है जिस ने ज़माने में अपना हक़ रौशन उसी का दहर में नाम-ओ-निशाँ रहा