बरसों तिरी तलब में सफ़ीना रवाँ रहा ऐ मेरे मेहरबान भँवर तू कहाँ रहा उन से मिली नज़र तो पलट कर न आ सकी वो रिश्ता-ए-निगाह भी कब दरमियाँ रहा कब उम्र-ए-ख़िज़्र ख़ंदा-ए-गुल का जवाब है याँ दो घड़ी में उम्र-ए-अबद का समाँ रहा मैं भी तिरे बग़ैर न आराम पा सका तू भी मिरी तलाश में बे-ख़ानमाँ रहा मुझ को गिला है तब-ए-मुरव्वत-शिआर से साग़र-ब-दस्त हो के भी तिश्ना वहाँ रहा ऐ दौर-ए-चर्ख़ अब कोई तदबीर और कर तेरी सितमगरी पे तो मैं शादमाँ रहा मुझ को 'जलील' कौन कहेगा शिकस्ता-दिल खाया था एक ज़ख़्म सो वो बे-निशाँ रहा