बस और क्या कहूँ इस सिलसिला में तौबा है मुझे जो पहुँचा है दुख दोस्तों से पहुँचा है मिरे वजूद से हैरत में है मुफ़स्सिर-ए-अक़्ल वो राज़ हूँ जो न मस्तूर है न इफ़्शा है मुझे हयात से है इस लिए भी दिलचस्पी ये एक दिन का नहीं उम्र-भर का सौदा है वो तेरे लुत्फ़-ए-तबस्सुम की नग़्मगी ऐ दोस्त कि जैसे क़ौस-ए-क़ुज़ह पर सितार बजता है ये ज़िंदगानी इबारत ख़लिश से है या'नी ख़लिश जो है तो चमन है नहीं तो सहरा है हैं तेरी इश्वा-गरी के ये मुख़्तलिफ़ पहलू कलीसा क्या है हरम क्या है बुत-कदा क्या है 'नज़ीर' क़िस्सा-ए-ज़ख़्म-ए-निहाँ कहूँ किस से ये दास्तान-ए-अलम सख़्त रूह-फ़र्सा है