बस एक बार उसे रौशनी में देखा था फिर इस के ब'अद अंधेरा बहुत अंधेरा था वो हाल का नहीं माज़ी का कोई क़िस्सा था जब अपने-आप में मैं टूट कर बिखरता था न मंज़िलों की तलब में लहू लहू थे बदन न रास्तों के लिए कोई आह भरता था वो मुझ को सौंप गया मंज़िलों की महरूमी जो हर क़दम पे मिरे साथ साथ चलता था न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा वो अपने शहर में रहता था फिर भी तन्हा था