बस लम्हे भर में फ़ैसला करना पड़ा मुझे सब छोड़-छाड़ घर से निकलना पड़ा मुझे जब अपनी सर-ज़मीन ने मुझ को न दी पनाह अंजान वादियों में उतरना पड़ा मुझे पाँव में आबले थे थकन उम्र भर की थी रुकना था बैठना था प चलना पड़ा मुझे अपनी परख के वास्ते तूफ़ाँ के दरमियाँ मज़बूत कश्तियों से उतरना पड़ा मुझे तेरी अना के हाथ में थे तेरे फ़ैसले तू तो बदल न पाया बदलना पड़ा मुझे बे-इंतिहा तज़ाद था दोनों की सोच में कुछ यूँ भी रास्ते को बदलना पड़ा मुझे ये भी हुआ कि बा-दिल-ए-ना-ख़्वास्ता कभी ज़िंदा हक़ीक़तों से मुकरना पड़ा मुझे यकजा रहा इक उम्र मगर तेरी दीद को मानिंद-ए-मुश्त-ए-ख़ाक बिखरना पड़ा मुझे आग़ाज़ अपने बस में न अंजाम ही 'अदील' इक ज़िंदगी गुज़ार के मरना पड़ा मुझे