बस मोहब्बत में तिरा हिज्र कमाया हुआ है और इस हिज्र को आँगन में उगाया हुआ है तू जिसे दश्त समझता है ये अब दश्त नहीं मैं ने इस दश्त में इक शहर बसाया हुआ है ये जो इक रौशनी पहलू से मिरे फूटती है ये वही ज़ख़्म है जो तू ने लगाया हुआ है आँख सूरज से मिलाते हुए कतराता हूँ मैं ने आँखों में कोई चाँद बसाया हुआ है रूठना भी नहीं आता न मनाना तुझ को प्यार को तू ने तमाशा सा बनाया हुआ है वो मोहब्बत का वो गीत सुनाता है मुझे मैं ने 'औसाफ़' जो लोगों को सिखाया हुआ है