बस्तियाँ लुटती हैं ख़्वाबों के नगर जलते हैं हम वहाँ हैं कि जहाँ शाम-ओ-सहर जलते हैं दिल के ऐवान में अफ़्सुर्दा चराग़ों का धुआँ दूर कुछ दूर वो यादों के खंडर जलते हैं फिर किसी मंज़िल-ए-जाँ-सोज़ की जानिब हैं रवाँ चोब-ए-सहरा की तरह अहल-ए-सफ़र जलते हैं यूँ तो पुर-अम्न है अब शहर-ए-सितमगर लेकिन कुछ मकाँ ख़ुद ही सर-ए-राहगुज़र जलते हैं है ब-ज़ाहिर कोई शोला न चमक और शरर हम किसी ग़म में ब-अंदाज़-ए-दिगर जलते हैं आतिश-ए-तल्ख़ी-ए-हालात में क्या कुछ न जला अब गिला क्या है जो एहसास के पर जलते हैं गो हो बर्फ़ाब भी तस्कीन है दुश्वार 'सहर' अपनी ही आग में अर्बाब-ए-हुनर जलते हैं