बताऊँ मैं तड़पने का मज़ा क्या नहीं देखा है तुम ने आइना क्या ज़मीं ताँबे की होती जा रही है सवा नेज़े पे सूरज आ गया क्या हमारे ख़ूँ की लाली क्या बताऊँ मुक़ाबिल इस के हो रंग-ए-हिना क्या बढ़ी क्यों आग इस तेज़ी से घर में दिया हम-साया ने इस को हवा क्या जुदा हर शख़्स का रस्ता हुआ जब तो कहने सुनने का कुछ फ़ाएदा क्या इसी से आबरू-ए-ज़िंदगी है गई इज़्ज़त तो बाक़ी ही रहा क्या भरे हैं कान दुश्मन ने तुम्हारे कहा क्या उस ने और तुम ने सुना क्या ग़ज़ल सुन लो ज़बाँ 'माहिर' की देखो समझने से ही पहले मर्हबा क्या