बातिल-ओ-ना-हक़ से उम्मीद-ए-करम करते रहे जो न करना था हमें वो काम हम करते रहे ज़ब्त कर सकते थे आख़िर ज़ब्त हम करते रहे काम था जिन का सितम करना सितम करते रहे ज़िंदगी-भर मुस्कुराए बे-सबब हम दोस्तो ज़िंदगी-भर ज़ीस्त की तल्ख़ी को कम करते रहे ऐ क़ज़ा तू देर से आई मगर ख़ुश-आमदीद उम्र-भर हम याद तुझ को दम-ब-दम करते रहे उम्र-भर हम ने किया है दूसरों का एहतिराम या'नी ख़ुद को उम्र-भर हम मोहतरम करते रहे उम्र पढ़ने लिखने की ग़फ़लत में गुज़री और फिर ज़िंदगी-भर हाथ अरमान-ए-क़लम करते रहे क्या नमाज़ें हैं हमारी क्या हमारी बंदगी खोट निय्यत में रहा और सर को ख़म करते रहे