बातों के नगर से आ रहे हैं हम अपने ही घर से आ रहे हैं लफ़्ज़ों के तुलू'अ कर के आफ़ाक़ मअनी के सफ़र से आ रहे हैं ख़ामोशियाँ भर के तन-बदन में हम बर्क़ ओ शरर से आ रहे हैं तारों के ये जितने क़ाफ़िले हैं इमकान-ए-सहर से आ रहे हैं इन अश्कों का दिल से क्या तअल्लुक़ ये शोले जिगर से आ रहे हैं भीगे हुए ग़म में सर से पा तक दरिया-ए-हुनर से आ रहे हैं जितने भी हैं लुत्फ़-ए-जाँ के मौसम सब दीदा-ए-तर से आ रहे हैं ये ग़म के तुयूर बे-तहाशा इक दिल के शजर से आ रहे हैं 'मश्कूर' हैं किस ख़याल में मस्त बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर से आ रहे हैं