बयाँ अपना दुख अब किया जाए ना बयाँ के बिना भी जिया जाए ना मसर्रत मिले देखने की उसे तसव्वुर भी जिस का किया जाए ना कहाँ है तू ऐ मुंतज़िर मर्ग-ए-मन कि अब मुझ से तुझ बिन जिया जाए ना बहुत ज़ख़्म खाए मिरी आँख ने दरीदा ये मंज़र सिया जाए ना क़दम चूमती है ज़मीं मेरी 'शाह' मगर मुझ से बदला दिया जाए ना