बज़्म-ए-तख़य्युलात में मातम है इन दिनों बे-कैफ़-ओ-बे-सुरूर सा आलम है इन दिनों मोनिस है कोई अपना न हमदम है इन दिनों जिस पर था ए'तिमाद वो बरहम है इन दिनों सोया हुआ है इज़्न-ए-मुसावात आज-कल तहरीक शोरिशों की मुनज़्ज़म है इन दिनों इंसानियत के भेस में उर्यां दरिंदगी शैतानियत का दौर मुजस्सम है इन दिनों हिर्मां-नसीब सर पे बलाएँ हैं सद-हज़ार इंसाँ पे जौर-ए-गर्दिश-ए-पैहम है इन दिनों किरनों से पूछ अपनी ज़रा मेहर-ए-हुर्रियत इंसाँ का ख़ून क़तरा-ए-शबनम है इन दिनों भूला हुआ है अपने फ़राएज़ को हर बशर जो कुछ भी हो रहा है सितम कम है इन दिनों खुलता नहीं ये राज़-ए-ख़मोशी जहान पर सर हुर्रियत-पसंद का क्यों ख़म है इन दिनों 'ज़मज़म' ये इंक़लाब निराला है क्या कहें आज़ादी-ए-वतन की ख़ुशी ग़म है इन दिनों