बेचैन जो रखती है तुम्हें चाह किसू की शायद कि हुई कारगर अब आह किसू की उस चश्म का ग़म्ज़ा जो करे क़त्ल-ए-दो-आलम गोशे को निगह के नहीं परवाह किसू की ज़ुल्फ़ों की सियाही में कुछ इक दाम थे अपने क़िस्मत कि हुई रात वो तनख़्वाह किसू की क्या मसरफ़-ए-बेजा से फ़लक को है सरोकार वो शय किसू को दे जो हो दिल-ख़्वाह किसू की दुनिया से गुज़रना ही अजब कुछ है कि जिस में कोई न कभू रोक सके राह किसू की छीने से ग़म-ए-इश्क़ शकेबाई ओ आराम ऐ दिल ये पड़ी लुटती है बुंगाह किसू की