बे-चारगी-ए-दोश है और बार-ए-गराँ है इज़हार पे पाबंदी है और मुँह में ज़बाँ है होता है यहाँ रोज़ मिरे दर्द का सौदा ऐ तेग़-ब-कफ़ रोज़-ए-मुकाफ़ात कहाँ है आज़ाद करो ख़ून को बाज़ार में लाओ सदियों से ये महकूम रगों ही में रवाँ है हाँ रंग-ए-बहाराँ है मगर उस के लहू से जो दस्त-ब-दिल मोहर-ब-लब दर्द-ब-जाँ है हर सम्त है बाज़ार खुला हिर्स-ओ-हवस का हर शहर में हर कूचे में वाइ'ज़ की दुकाँ है कल किस को ज़बाँ बंद करोगे ज़रा सोचो कल देखोगे हम को कि ज़बाँ है न दहाँ है किस शहर-ए-ख़मोशाँ में चले आए हैं हम लोग ने ज़ोर-ए-सिनाँ है न कहीं शोर-ए-फ़ुग़ाँ है हर दर्द की हद होती है यूँ लगता है जैसे इस दर्द का कोई न ज़माँ है न मकाँ है