बे-फ़ैज़ अजब निकली ये फ़स्ल-ए-तमन्ना भी फूटी नहीं कोंपल भी चटका नहीं ग़ुंचा भी क्या हो गया गुलशन को साकित है फ़ज़ा कैसी सब शाख़ ओ शजर चुप हैं हिलता नहीं पत्ता भी लौ जिस से लगाई थी वो आस भी मद्धम है दिल जिस से चराग़ाँ था बुझता है वो शोला भी इस इश्क़ में क्या खोया इस दर्द से क्या पाया तुम ने नहीं पूछा भी हम ने नहीं सोचा भी आँगन ही में अब दिल के हम ख़ाक उड़ाते हैं घर ही में निकल आई गुंजाइश-ए-सहरा भी अंधों के लिए रोऊँ बहरों के लिए गाऊँ है ज़ौक़-ए-नवा मुझ को लेकिन नहीं इतना भी