बे-हक़ीक़त दूरियों की दास्ताँ होती गई ये ज़मीं मिस्ल-ए-सराब-ए-आसमाँ होती गई किस ख़राबी में हुआ पैदा जमाल-ए-ज़िंदगी अस्ल किस नक़्ल-ए-मकाँ में राएगाँ होती गई तंगी-ए-इमरोज़ में आइंदा के आसार हैं एक ज़िद बढ़ कर किसी सुख का निशाँ होती गई दूसरे रुख़ का पता जिस को था वो ख़ामोश था वो कहानी बस इसी रुख़ से बयाँ होती गई इक सदा उट्ठी तो इक आलम हुआ पैदा 'मुनीर' इक कली महकी तो पूरा गुल्सिताँ होती गई